मंगलवार, 27 नवंबर 2012



                                 एक डायरी का यूं खो जाना


        "तुम्हें पता है तुम मुझे सबसे सुन्दर कब लगी थी सुधा..."! चंदर कभी कभार उसे फोन पर कह देता था......... जब वह बहुत अपसेट होता और वह उसके बार बार कहने पर भी उसे कोई मेल नहीं करती। कब? दिवाली की उस रात जब तुम लहंगे में सबकी नजरों से छिपते छिपाते गली के मोड़ तक आई थी... उपर आसमान पटाखों से तंग था लेकिन... लेकिन नीचे तुम्हारे चेहरे पर बर्फ पिघल रही थी। लड़कियां हमेशा असहज होने पर ज्यादा खूबसूरत दिखती है। वो चंदर की उसके गलियों में बीती उसकी आखिरी दिवाली थी। उसी तरह जिस तरह वो दुर्गापूजा... जिसमें वे रंगेहाथ धराए थे...! उसी तरह वो छठ आखिरी छठ था जब सूरज ढलने तक सुधा की रेलिंग के बाहर चंदर ने उसे देखते हुए शाम बिताई थी ...... अपने घर से दूर एक दूसरे मोहल्ले में। लफंगों की तरह लाइन मारने का यह विकलांग दौर खुदा ने शायद चंदर के किसी नेक काम के इनाम के तौर पर उसे बख्शा  था। फिर न कभी वो दिवाली आई, न दुर्गापूजा और न ही फिर किसी छठ में चंदर ने आफिस में छुट्टी के लिए आवेदन दिया या गुजारिश की! वह नई जॉब पाने के धुन में लग गया ........ गोया नई जॉब पाके मानो वह सुधा के साथ शादी कर लेगा........ शादी की कई शर्तें तब थी जो सुधा की शादी से ठीक पहले अप्रत्याशित रूप से इतनी बढ़ी कि चंदर बुरी तरह घबरा गया था........ डायरी के पन्ने भर जाने के बाद उसके शब्द अलग कागजों तक छलक जाते थे........ दफ्तर में उसने एक नया ब्लॉग बना लिया......लैपटॉप उसकी नई डायरी बन गई थी......... चंदर लाख कोशिश करता लेकिन खुद से भाग नहीं पाता .......


        आदमी कितने सवालों का जवाब दे! कितनी बार दे! किस-किस को दे! और कब तक दे! 2009 और 2012 में फर्क था। समय की पीढि़यां इंसानों की तरह लंबा समय नहीं लेती। परिस्थितियां समय को कब प्रौढ बना दे और कब नवजात कर दे यह प्रेमचंद और कमलेश्वर जैसे लेखक भी नहीं समझ सके तो चंदर तो अभी आत्मनिर्भर होना भी ठीक तरह से नहीं सिखा था....... रोज-बी-रोज अपनी प्राथमिकताएं तय करता और अगली सुबह फिर हवा की तरह शहर में इधर उधर बहता रहता....... इतिहास उसका पीछा पहले से कर रहा था और अब वर्तमान ने भी चंदर की बची खुची चैन छीन लिया था....... हद नफरत हो गई थी उसे रोमांटिक गानों से ....... मेट्रो में हाथ में हाथ डालकर चल रहे जोड़ों से और वो हर चीज से जो उसे धिक्कारती थी कि उसके पास जवाब नहीं है....... अपराधबोध और गर्वबोध उसके अन्दर बारी बारी से झोंको की तरह आता और उसे अशांत कर के चुपचाप चला जाता.......

   2009 तक उस कोठली के सारे दरवाजे बंद थे और लोग प्रताडि़त करके चंदर को सवालों से मारते थे..... चंदर मार खाता और वो फिर मारते....... आखिरकार किस्मत की मदद से चंदर उस कोठली से एक दिन भाग गया.......बहुत दूर..... कम से कम हजार किलोमीटर दूर..... एकदम दूर..... एक नहीं निर्वात के कई महासागरों के पार अपनी एक छोटी सी दुनिया बसाई उसने...... यहां सवाल पूछने वाला कोई नहीं है सिवाय उसकी डायरी के। डायरी को जवाब देना और बात है क्योंकि वह काउंटर क्वेश्चन नहीं करता। उसे सब पता है... 2004 से 2008 और 2008 से 2009 तक। उसके पास चंदर के हर दिन, हर रात और हर ब्यौरे का ब्यौरा है। उसके सवालों से डर नहीं लगता। इत्ता सा भी नहीं! डायरी को पता है चंदर उससे झूठ नहीं बोलेगा और चंदर को पता है कि वह अगर डायरी से झूठ बोला तो पकड़ा जाएगा।

         चंदर को सुधा की शादी का पता अपने सूत्रों से चला था। चौंका था एक बारगी वो इसलिए नहीं कि सुधा सुहागन हो रही थी बल्कि इसलिए कि सुधा ने उसे बताया नहीं था। मेट्रो में उसके उंगली में अंगूठी देखकर चंदर को एक बार शक हुआ तो उसने एसएम्एस से पूछ लिया, बाद में सुधा ने उसे इतना ही कहा कि ये उसकी बहन ने अपने बेटे के जन्मदिन पर उसे दिया है....... सुधा के इस झूठ से चंदर को इतना दहला दिया था कि उसने ये निर्णय कर लिया कि सुधा की शादी से पहले वह सुधा का एक एक गिफ्ट उसे दे आयेगा। 

          इधर जिन्दगी एक और रंग लिए सामने आई थी। चंदर के पिता को हॉस्पिटल ले जाना जरुरी था और चंदर इस जवाबदेही से न बचना चाहता था न बच पाया। दो समानांतर रेखाएं खिंची जा चुकी थी और चंदर बीच में था....... एकदम मध्य में जहाँ से वह टस से मस नहीं हो सकता था। चंदर के पापा सुधा के बारे में जानते थे और उन्हें आपत्ती नहीं थी क्यूंकि उन्हें सुधा के जिस पक्ष के बारे में आपत्ति होती वो चंदर ने अपने पापा को बताया ही नहीं था ......  बाई पास सर्जरी के बाद से ताबड़तोड़ एक के बाद एक सदमा उन्होंने बर्दाश्त किया था...... क्या कहता चंदर उनसे?


       जिंदगी का कुछ हिस्सा बाल पत्रिकाओं में छपने वाले उस खेल की तरह होता है ..... जिसमें जीतने के लिए सही रास्ते से बाहर निकलना होता है। चंदर जब भी बचपन में नन्दन, नन्हें सम्राट, सुमन सौरभ, चंपक या किसी अखवारी परिशिष्ट में यह खेल खेलता था और गलत रास्ते पर चलकर आगे फंस जाता था ......  वह दूसरी बार प्रयास भी नहीं करता। आगे बढ़ कर नहीं लौटना उसका कोई उसूल नहीं था बस एक सीख थी जिसे उसने कैसे सिखा था ये उसे भी पता नहीं था। जूनून में आकर काफी कुछ उसने किया था लाइफ में। अपनी बर्बादी का कारण भी उसका जूनून ही था। जिंदगी भी इसी तरह का एक खेल है! जिसमें चंदर ने शायद गलत रास्ता चुन लिया था! इस रास्ते के मुहाने पर कोई फाइव स्टार जाब न होकर एक दर्दनाक करियर था ...... जो वो निभा रहा था...... कभी मन से तो कभी बेमन से। उसने वापस आकर दूसरे रास्ते से अलग मंजिल तलाशने की कोशिश भी की थी लेकिन वो असफल हो गया था। 

       चंदर की कई लोगों से शिकायत थी।लेकिन सबसे ज्यादा अपराधबोध उसका खुद से था कि वह इनसब उलझनों को सुलझा न सका और न ही खुद की नजर में गिरने से खुद को बचा सका। उसे सुधा को खोने का उतना मलाल नहीं था जितना कि मलाल उसे इस बात का था कि सुधा उसके बिना कैसे रहेगी। वह गलत भी था और गलत नहीं भी था...... 


     तुम्हारे न होने के बाद हर जवाब दूसरे जवाब पर सवाल खड़ा करेगा...  और हर सवाल.... हर एक सवाल अपने भीतर कई और नए सवालों को समेटे हुए मेरे सामने आएगा। यह तीसरा पहर होगा, जो मुझे और परिपक्व बनाएगा शायद! तुम बिन!

          

तुम भी एक डायरी थी....


चंदर 

नोट : ये कहानी विशुद्ध रूप से कल्पना पर आधारित है!

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