बेगूसराय तक पहुंचने में ट्रेन की ट्रेक कई बार बदली.
सालों पहले जब मैं दिल्ली के लिए चला था तब भी ट्रेक बदलते हुए ट्रेन आनन्द बिहार टर्मिनल तक
पहुंची थी. फिर वहां से ऑटो लेकर पूछते-पूछते जेएनयू कैम्पस तक पहुंचा था. ऑटो के
रास्ते में ट्रेक नहीं होता, सड़क होती है. ऑटो के ड्राइवर के बस में होता है कि
वह ऑटो को किधर ले जाये लेकिन लोको पाइलट के साथ ऐसा नहीं है क्योंकि उसका ट्रेक
कोई और चेंज करता है.
जिंदगी भी ट्रेक पर चलती है. कुछ जिंदगी सड़क पर चलती है और कुछ जिंदगी
बारी-बारी से दोनों पर चलती है.
आपके घर में कोई केस चल रहा है
हां, लेकिन उससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है
ओके, पता है हमें.
सर, जब पता है तो क्यूं कुरेदते हैं
क्यूंकि यह हमारा काम है योगेश जी
2010 का वो फोन कॉल था जो इंटेलिजेन्स ब्यूरो ने किया था. कॉमनवेल्थ गेम्स में
जिन्हें जवाबदेहियां दी गईं थी उनकी पूरी जानकारी सरकार के पास पहुंचनी जरूरी थी.
क्या आने वाले साल वैसे ही बीतेंगे जैसे अब तक बीतते आए हैं?
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कहां रहते हो...दिखते नहीं हो
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काफी दिनों बाद आए हो शायद
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और उसका क्या हुआ?
वो अंदर है और मैं मुंबई में हूं. एक दिन सबको जवाब मिलेगा. उस दिन तक का वेट
कीजिए.
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कोई यंग विडो देखिए न अपने लिए!
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दम घुटा जाता है सीने में
फिर भी जिंदा हैं
तुमसे क्या हम तो जिंदगी
से भी शर्मिंदा हैं
मर ही जाते न जो यादों के सहारे होते
वक्त करता जो वफा....
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मैं खुद की संवेदना के केन्द्र में फिर से आ गया हूं. बेगूसराय की यात्रा “इलेक्ट्रिक शॉक” की तरह ही होती है.
समय के साथ यह दौड़ पता नहीं कितनी दूर तक चलेगी!
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