मंगलवार, 11 जून 2013

शब्द

फराज से उधार

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ, फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

पहले से मरासिम1 न सही, फिर भी कभी तो
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस-किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ 

अब तक दिले-ख़ुशफ़हम2 को हैं तुझसे उमीदें
ये आख़िरी शम्ऐं भी बुझाने के लिए आ

इक उम्र से हूँ लज़्ज़ते-गिरिया3 से भी महरूम
ऐ राहते-जां मुझको रुलाने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिन्दारे-मुहब्बत4 का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

माना कि मुहब्बत का छुपाना है मुहब्बत
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिए आ

जैसे तुम्हें आते हैं न आने के बहाने 
ऐसे ही किसी रोज़ न जाने के लिए आ


ुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुु

कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते

ूूूूूूूूूूूूूूूूूूूूूूूूूूूूूू